तंगहाली में एशियाई पदक विजेता पहलवान दिव्या को बिना टिकट रेल यात्रा करनी पड़ी
– सीनियर एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप के लिए भारतीय टीम में चुनी गई हैं दिव्या काकरान
– 2012 से पहले झाँसी और आसपास के जिलों में बेटी को दंगल लड़वाने ले जाते थे
-पैसे नहीं होने पर बिना टिकट ट्रेन से जाते थे, कई बार टिकट चेकर ने पकड़ा
-पहलवानी के नाम पर छूटते थे, कईबार भद्दी बातें सुननी पड़ी
नई दिल्ली, खेलरत्न, सं:
बेटी को कुश्ती लड़वाने पर लोगों का ताना सूरज सेन को सहा नहीं गया. उन्होंने दिल्ली छोड़ झाँसी और आसपास के जिलों में दिव्या को दंगल में उतरना शुरू किया. तंगहाली इतनी थी कि वहां जाने के लिए टिकट के पैसे नहीं होते थे. बेटी की कुश्ती में ललक और दंगल में पहलवानो के लंगोट बेच पैसे कमाने की चाहत पिता और बेटी को बिना टिकट यात्रा करने पर मज़बूर करता. कई बार ट्रेन में बिना टिकट पकडे गए, कभी टिकट चेकर की भद्दी बातें सुननी पड़ी तो कभी पहलवानी के नाम पर छूट जाते। दिव्या ने कड़ी मेहनत और लगन से भाग्य की लकीरों को बदल दिया है. इस अंतर्राष्ट्रीय पहलवान का चयन सीनियर एशियाई कुश्ती प्रतियोगिता के लिए भारतीय टीम में किया गया है. इससे पहले जूनियर एशियाई कुश्ती सहित कई अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में पदक जीत चुकी हैं.
सूरज सेन बताते हैं कि जब दिव्या 11-12 साल की थी उस समय हमारे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि रेल टिकट खरीदा जा सके. कई बार पकड़े गए, लेकिन क्या करते हम मज़बूर थे. उम्मीद थी कि बेटी जरूर जीतेगी. जीत पर मिले पैसे से भी हमारा खर्चा चलता था. झाँसी, मथुरा, गौतमबुध्दनगर जिलों में जाकर दिया कुश्ती करती थी. लड़को से भी लड़ती थी और उन्हें हराती थी. दिल्ली में कुश्ती लड़वाता तो लोग ताने मारते की बेटी को दंगल में उतार रहा है, ऐसे में एकमात्र विकल्प कही और कुश्ती में भाग दिलाना रह गया था. कुश्ती दिल्ली के ही अखाड़े से शुरू हुई थी. अब बेटी की नौकरी के लिए रेलवे में प्रयास चल रहा है.
5 हज़ार के किराये के मकान में रहता है परिवार
दिल्ली स्थित शाहदरा के गोकलपुर में अब भी पिता सूरज सेन, पत्नी और बेटे के साथ एक कमरा और बरामदा वाले घर में किराये पर रहते हैं. इसका किराया 5000 रुपये है. वर्ष 2000 में 500 रुपये के किराये के मकान में रहना इस परिवार की मज़बूरी थी. बेटी के भारत केशरी बनने पर 10 लाख रुपये मिलने है. इससे दिव्या का परिवार खुश है, शायद यह राशि उनकी स्थिति को सुधारने में मददगार हो. मूलरूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के गांव पुरबालियान के निवासी सूरज के पिता चीनी मील में मज़दूर थे. परिवार का भरण पोषण जैसे तैसे होता था. ऐसे में दिव्या के पिता करीब 20 साल पहले दिल्ली आ गए. पैसे के आभाव में बेटे की पढाई भी छूट गई है.
पहलवानो के लंगोट बनाने का काम करता है परिवार
दिव्या के पिता पहलवानो के लंगोट बनाने का काम करते हैं. सिलाई का काम माँ करती हैं, जबकि सूरज अखाड़ों में जाकर इसे बेचते हैं. इस काम से इन्हे प्रतिमाह करीब 15 हज़ार रुपये मिलते हैं. इसी से परिवार का भरण पोषण होता है. दिव्या ज्यादातर अभ्यास शिविर में ही रहती हैं. ऐसे में उनका खर्च परिवार को नहीं उठाना पड़ता है, नहीं तो मुश्किलें और भी बढ़ सकती हैं .
सूरज दिव्या के हानिकारक बापू नहीं हैं
दंगल फिल्म का एक गाना हानिकारक बापू में यह दिखाया गया है कि पहलवानी के लिए बेटिओं को उनके मन के खिलाफ अखाड़े में उतारा गया, लेकिन दिव्या के लिए ऐसा नहीं था.
बचपन से ही सूरज दिव्या को कुश्ती दिखने ले जाते थे, वहीँ से दिव्या का रुझान कुश्ती में हुआ.
पिता भी पहलवान थे ऐसे में बेटी के सपनो को पूरा करने में जी-जान से जुट गए. इस खेल से जुड़ाव के लिए दिव्या पर दबाव नहीं डाला गया.
69 किलोभार वर्ग में दमखम दिखाएंगी
10 मई से दिल्ली में होनेवाली एशियाई कुश्ती प्रतियोगिता के 69 किलोभार वर्ग में दिव्या दमखम दिखाएंगी. उनसे पदक जीतने की भी उम्मीद की जा रही है. इससे पहले राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में दिव्या 10 स्वर्ण, 2-2 रजत और कांस्य जीत चुकी हैं. बुल्गारिया में हुई सीनियर अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में कांस्य, सब जूनियर एशियाई कुश्ती में में रजत, जूनियर एशियाई कुश्ती में कांस्य, सहित प्रतियोगिता में पदक झटके हैं. चार भर भारत केसरी भी रह चुकी हैं.